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महान शक्ति देश (1815 to 1970)

1. ऑस्ट्रिया(हंगरी) साल 1815- 1918 की बात की जाए तो इस माह शक्ति ने विघटन देखा

2. ग्रेट ब्रिटेन के लिए साल 1815-1957 पे नजर डाली जाए तो इस देश ने पहले लीग कौंसिल और बाद में संयुक्त राष्ट्र संघ में स्थाई सदस्य्ता हासिल की

3. जर्मनी के लिए साल 1815- 1945 में साल 1918 to 1925 अस्पष्ट स्टेटस था और आगे WW2 में हार का सामना करना पड़ा

  1. रूस, USSR के लिए साल 1815-1953 में साल 1917 to 1933 अस्पष्ट स्टेटस था, अब संयुक्त राष्ट्र संघ में स्थाई सदस्य्ता
  1. फ्रांस की बात करें तो साल 1815-1967 के दौर में साल 1940 to 1945 अस्पष्ट स्टेटस था, अब संयुक्त राष्ट्र संघ में स्थाई सदस्य्ता

6. इटली के लिए साल 1870-1943 पे ही नजर डाली जाए तो ये दौर उसके लिए बुरा ही रहा क्योकि WW2 में उसकी बुरी हार हुई थी

  1. जापान के लिए भी साल 1900- 1945 सबसे बाड़ी बात उसकी WW2 में बुरी हार ही है
  2. चीन साल 1945 -1965 के युग में संयुक्त राष्ट्र संघ का स्थाई सदस्य बना
  3. अमेरिका साल 1900 1952 के युग में संयुक्त राष्ट्र संघ का स्थाई सदस्य बना

शुरू में ग्रेट पावर का मतलब उस ग्रुप से था जो शांति के लिए नेपोलियन से लड़ा और 1815 में वॉटरलू में नेपोलियन पे जीत हासिल की शुरू में इस ग्रुप ने ग्रेट पावर का नाम खुदको ही दिया था, ग्रेट पावर शब्द की नीव वियाना के उस समझौते के समय रखी गई जो नेपोलियन के खिलाफ 1815 में जीत हासिल करने के बाद अमल में लाया गया था शुरू में इस ग्रुप में ब्रिटेन, प्रुशिया(जर्मनी), रूस, ऑस्ट्रिया- हंगरी थे, कुछ समय बाद फ्रांस को भी इस ग्रुप की सदसयता मिल गई थी, वर्तमान की बात करे तो ग्रेट पावर उसे ही माना जाता है जिसके पास जितने ज्यादा परमाणु हथियार होंगे

साल 1904-05 में रूस को हराने के बाद ग्रेट पावर के संगठन में जापान को भी स्थान मिल गया था, उस समय इस  सदसयता के लिए ये जरुरी था की पुराने ग्रेट पावर्स वाले देश नए देश को ग्रेट पावर मान ले जैसा की उन्नीसवीं शताब्दी में फ्रांस को लेके हुआ था

पहले साल 1920 में लीग ऑफ़ नेशंस की स्थापना हुई जो बाद में साल 1945 में संयुक्त राष्ट्र संघ में बदल गया, ब्रिटेन, फ्रांस, जापान, इटली और चीन पहले विश्व युद्ध के बाद ग्रेट पावर बन गए थे, उस समय जर्मनी के लिए भी एक सीट खाली रखी गई थी साल 1925 में जर्मनी को लोकार्नो समझौते के लिए आमंत्रित किया गया जिसके बाद जर्मनी को लीग कौंसिल की सीट दी गई, इसके बाद इटली, जर्मनी और जापान को WW2 के बाद ग्रेट पावर के ग्रुप से बाहर जाना पड़ा

ताकतवर देशो ने ही समय समय पे शांति की बहाली का प्रयास भी किया और इन्ही की वजह से कई बड़े युद्ध भी टाले जा सके, प्रथम विश्व युद्ध के बाद इन ताकतवर देशो ने साल 1919 में लीग ऑफ़ नेशंस की स्थापना की और दुसरे विश्व युद्ध के बाद साल 1945 में इन्ही देशो ने जिनमे ब्रिटेन, फ्रांस, रूस, अमेरिका जैसे देश शामिल रहे ने संयुक्त राष्ट्र संघ का निर्माण भी करवाया, साल 1945 के बाद की बात करे तो अमेरिका के  प्रयासों की वजह से ही घमासान कोरिया युद्ध को खत्म किया जा सका, दूसरी तरफ देखा जाए तो साल 1956 में ब्रिटेन, फ्रांस और इजराइल के हमलो को रोकते  हुए सोवियत संघ ने अपनी शक्ति के दम पे सुएज के इलाके की रक्षा की थी

महा शक्तियों की दो सबसे बड़ी विचारधारा हुआ करती थी की एक तो विश्व के ज्यादा से ज्यादा हिस्से तक अपने प्रभाव को पहुंचाया जाए और दूसरा ये की विश्व के ज्यादा से ज्यादा देशो को प्रभवित करके अपने सुरक्षा संगठन में शामिल किया जा सके, ये ग्रेट पावर देश सबसे पहले अपने अंतर्राष्ट्रीय हितो को साधा करते थे जिसके लिए इनका निशाना हुआ करता था की कमजोर देशो को एक विचार धारा में बांधके रखा जाए और कमजोर देशो को अपने दायरे से बाहर न निकलने दिया जाए, हर बड़ी  ताकत वाले देश की इच्छा हुआ करती थी की वो खुदसे कमजोर देशो को दबा के रखे, और कमजोर देश की इच्छा हुआ करती थी की वो भी खुदसे कमजोर देश को डरा दबा के रखे

शक्ति या पावर या ताकत की परिभाषा- सीधी भाषा में “एक की क़ाबलियत और क्षमता दूसरो के वर्ताव  को नियंत्रित करने को ही शक्ति या पावर या फिर ताकत कहा जाता है” वैसे शक्ति कभी भी स्थिर नहीं रहती जैसे की एक समय था जब रोमन  साम्राज्य का पूरे यूरोप और पश्चिम एशिया तक प्रभाव हुआ करता था, इसी तरह एक समय कहा जाता था की ब्रिटिश राज में कभी भी सूर्य अस्त नहीं होता है, फ्रांस, ब्रिटेन, जापान, जर्मनी और इटली ww2 से पहले ग्रेट पावर कहलाते थे, जो अब उतने ताकतवर नहीं गिने जाते, अमेरिका और सोवियत संघ ww2 से पहले महा शक्ति नहीं हुआ करते थे, चीन आने वाले समय में अगला महा शक्ति बन सकता है जो पहले नहीं हुआ करता था,

ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, फ्रांस आज मध्यम ताकतवर देशो की श्रेणी में आते है, टर्की, ईरान और सूडान छोटी शक्ति के रूप में जाने जाते है, इसी तरह कीनिया, घाना, नाइजीरिया जैसे देश किसी भी शक्ति के रूप में नहीं देखे जाते, भारत कभी छोटी शक्ति के रूप में देखा जाता था जो अब मध्यम शक्ति के रूप में देखा जाता है

शक्ति के कुछ अंश- 1. देश की सीमा कितनी दूर तक फैली है और ये कितनी सुरक्षित है

  1. देश की जनसँख्या कितनी पढ़ी लिखी है, उसकी सेहत कितनी अच्छी है और जनसँख्या है कितनी
  2. देश के पास कितने कुदरती संसाधन है
  3. देश के पास पेट्रोलियम, यूरेनियम और एलाय मेटल कितना है
  4. देश के कारखानों की कितनी क्षमता है की वो आधुनिक हथियारों का निर्माण कर सके
  5. राजनीतिक स्थिरता
  6. आर्थिक स्थिरता
  7. आर्थिक स्थिति इतनी मजबूत होनी चाहिए की देश की जनता की आर्थिक जरूरतों को पूरा करने के साथ साथ देश के पास विदेशो को कर्ज देने की क्षमता ज्यादा से ज्यादा होनी चाहिए
  8. देश के पास परमाणु, इलक्ट्रोनिक, और गाइडेड मिसाइल जैसे हथियार बनाने की कितनी क्षमता है
  9. देश की थल सेना, जल सेना और वायु सेना कितनी बड़ी और शक्षम है
  10. अंतर्राष्ट्रीय मोल भाव करने की क्षमता
  11. युद्ध प्रोपेगंडा की क्षमता
  12. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पे कितने मित्र देश है जो युद्ध के समय खुलके साथ देंगे

नेचुरल संसाधन और कच्चे माल का महत्व: मिनरल, फ़्लोरा, फौना, पेट्रोलियम, जंगल और पानी ये नेचुरल संसाधन जिस देश के पास जितनी अच्छी हालात में होंगे और जितने ज्यादा होंगे देश उतना ही ज्यादा ताकतवर होगा, इसके इलावा मनुष्य द्वारा बनाए गए संसाधन जैसे की कॉटन, रबर, भी बहुत महत्वपूर्ण है, इसके इलावा गोल्ड, सिल्वर, कॉपर, जिंक, मैंगनीज, यूरेनियम आदि भी देश की समृद्धि  को बढ़ाते है

जिन देशो के पास ये सभी कुदरती संसाधन अच्छी मात्रा में नहीं होते उन देशो की तरक्की की राहें  काफी मुश्किल हो जाती है, इन्ही कारणों से एशिया और अफ्रीका के कई देश उपनिवेशवाद का शिकार हो गए थे कई सारे जरुरी कुदरती संसाधन एशिया और अफ्रीका के कमजोर देशो के पास बहुत भरपूर मात्रा में हुआ करते थे, पर ताकतवर देशो के पास नहीं थे इसी वजह से ताकतवर देशो ने एशिया और अफ्रीका के कमजोर देशो को लम्बे समय तक अपना उपनिवेश बनाए रखा था

अरब देशो के पास तेल का भंडार है तो मलेशिया और बोलीविया के पास टिन का भंडार है, ब्राज़ील और  कोलंबिया कॉफ़ी के लिए जाने जाते है, म्यांमार और थाईलैंड चावल के लिए मशहूर है, भारत और पाकिस्तान में जूट और कॉटन के भंडार भरपूर हैं इंडोनेशिया के पास गर्म मसाले और रबर का भंडार है, श्री लंका के पास चाय का कुदरती भंडार है, कोयले के बड़े भंडार की वजह से रूस, इंग्लैंड और जर्मनी में उद्योग फले फूले, रूस के पास अरब देशो की तरह ही बड़ा तेल का नेचुरल भंडार है, कनाडा और कांगो के पास यूरेनियम और प्लूटोनियम के बड़े भंडार है जो परमाणु ऊर्जा के लिए बहुत जरुरी है इसी वजह से इन देशो की शक्ति में इजाफा होता है

जनसंख्या का महत्व- जनसंख्या के महत्व को दो तरफ से देखा जाता है, पहला अगर जनसंख्या शक्ति का आधार होती तो ब्रिटेन जैसा कम जनसंख्या वाला देश इतने लम्बे समय तक भारत जैसे बड़ी जनसंख्या वाले देश पर नियंत्रण कैसे कर सकता था. पर आज के विद्वान् ये मानते है की जिस देश की जनसंख्या जितनी ज्यादा होगी वो देश उतनी ही बड़ी सेना का निर्माण कर सकता है इस के लिए भारत और चीन सबसे अच्छे उधारण है, जानकार मानते है की जिस देश के पास बड़ी जनसंख्या होगी वो देश उतने ही अच्छे ढंग से उद्योग विकसित कर सकेगा क्यों की उसके पास काम करने वाले ज्यादा से ज्यादा लोग हैं और जिस देश की जनसंख्या ज्यादा होगी वो देश युद्ध के समय अपने शत्रु का पुरजोर मुकाबला कर सकता है और जीत सकता है

शक्तिशाली थल, जल और वायु सेना के लिए भी ज्यादा से ज्यादा लोगो की जरुरत रहती है ऐसे में कम जनसंख्या वाले देश ये जरुरत आसानी से पूरा नहीं कर सकते

अर्थव्यवस्था का महत्व: ब्रिटेन WW1 से पहले दुनिया का सबसे बड़ा व्यापारी और ताकतवर देश हुआ करता था इस व्यापार को मजबूत करने के लिए ब्रिटेन ने गरीब और पिछड़े देशो का खूब शोषण किया जिस वजह से अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी में ब्रिटेन की साख गिर गई और आगे चलके उसकी आर्थिक ताकत पे बुरा असर पड़ा और WW2 में ब्रिटेन सहित अन्य यूरोपियन देशो की आर्थिक ताकत कमजोर हो गई जिसकी वजह से ही ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी जैसे देशो के सामने ही अमेरिका दुनिया की महा शक्ति बनके उभर आया और यूरोपियन देश पिछड़ गए, आगे देखे तो जर्मनी और जापान तभी बड़ी शक्ति बन सके थे जब इन देशो में उद्योग चरम पे पहुंचे थे इसी तरह चीन और रूस पहले कमजोर देश माने जाते थे पर जब इन देशो में उद्योग ने तरक्की की तो ये देश भी महा शक्ति बन गए

टेक्नोलॉजी का महत्व: 1870 के बाद जर्मनी में टेक्नोलॉजी की वजह से ही बीसवीं सदी में उसे महा शक्ति का दर्जा मिला दूसरी तरफ जापान के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ पर इन दोनों देशो के नेतावों ने WW2 में अपनी टेक्नोलॉजी का गलत इस्तेमाल किया जिस वजह से इन देशो की शक्ति को चोट पहुंची और अमेरिका और सोवियत संघ दो महा शक्ति बनके सामने आए

जर्मनी ने लॉन्ग रेंज राकेट, फ्लाइंग बम, जेट्स, राकेट एयरक्राफ्ट्स और तेजी से चलने वाली पनडुब्बियां बनाई जिसके बाद जर्मनी की ताकत बहुत बढ़ गई, इसी तरह ब्रिटेन द्वारा रडार की खोज और अमेरिका द्वारा परमाणु बम का निर्माण ने इन देशो की शक्ति में बहुत ज्यादा इजाफा किया

कुछ अश्प्रश्य बातें- देश के लोगो की सोच, डिप्लोमेसी, नेतृत्व और प्रोपेगंडा जैसे अन्य कारको का बहुत अलग महत्व है जो देश की शक्ति बढ़ने में योगदान देते है

देश का चरित्र: देश के लोगो का चरित्र और सही सोच देश को जीत दिलाती है, ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने कहा था की उन्होंने एक बार देश का दौरा किया तो देखा की दुश्मन सेना ने पूरे देश में तबाही मचा रखी थी पर उन्होंने कहा की ऐसे बुरे समय में भी मैंने देश के लोगो की आँखों में एक उम्मीद, एक आत्मविश्वास और जीत के निकलने की चाह देखी है माना जाता है की WW2 में ब्रिटेन के लोगो की अपने देश की सेना की प्रति विश्वास और ईमानदारी ने ही उसे जीत दिलाई थी और इसी चरित्र की वजह से ww2 में बुरी तरह से टूटने के बाद भी ब्रिटेन बहुत जल्दी दुबारा खड़ा हो गया था

नेतृत्व: जापान के सैनिक नेतृत्व ने साल 1930 में आए ग्रेट डिप्रेशन से अभी तक न उभर सकने वाली अपनी अर्थव्यवस्था पे तब बोझ डाल दिया जब उन्होंने 1941 में अमेरिका के पर्ल हारबर पे बड़ा हमला करके जीत तो दर्ज करली पर इस हमले में हुए खर्च ने जापान की अर्थव्यवस्था को तोड़के रख दिया, इसी तरह पाकिस्तान के नेता अयूब खान और याहिया खान की गलत नीतियों का खामिजा देश को साल 1965 और साल 1971 में भारत के हाथो युद्ध में हार से भुगतना पड़ा था साथ ही पाकिस्तान के नेतृत्व की नाकामी की वजह से ही देश के बांग्ला भाषी लोगो के मन का रोष न समझ पाना ही देश के टूटने और बांग्लादेश बनने की वजह बना था

विचारधारा का महत्व: ये विचार धारा ही थी जिस वजह से जर्मनी, इटली और जापान ने साल 1930 में एक गुट बना लिया था जिसे लगता था की लोकतांत्रिक देश उनके दुश्मन है, दूसरी तरफा विचार धारा ने ही अमेरिका, रूस, इंग्लैंड और फ्रांस को भी एक साथ खड़ा कर दिया और रोम, बर्लिन और टोक्यो की तानाशाह सरकारों के खिलाफ लड़ने के लिए तैयार किया

शक्ति का संतुलन: शक्ति का संतुलन वो प्रक्रिया है जिसके तहत किसी भी एक देश को इतना शक्तिशाली बनने से रोकना है जिससे वो देश बाकी के देशो के लिए खतरा न बन जाए, WW1 के बाद फ्रांस ये चाहता था की जर्मनी की सभी शक्तिया छीन ली जाए जिससे वो भविष्य में कोई खतरा न बन सके पर ब्रिटेन को फ्रांस की शक्ति से डर लग रहा था जिस वजह से ब्रिटेन ने दो सालों के भीतर ही जर्मनी की शक्ति को बढ़ने में मदद करनी शुरू करदी ताकि फ्रांस की शक्ति को नियंत्रण में रखा जा सके

पर्तिस्पर्धा- ताकतवर देश हमेशा से कमजोर देशो को पैसा और हथियार देते आए है इसका मकसद हमेशा से एहि रहा है की अगर अपने दुश्मन की ताकत कम करनी है तो उसके कमजोर दुश्मन को ताकतवर करदो जिससे आपका ताकतवर दुश्मन खुद ही कमजोर हो जाएगा, इसी सोच पे चलते हुए शीत युद्ध के दौर में अमेरिका ने बहुत से देशो को हथियार दिए ताकि साम्यवाद की ताकत को कम किया जा सके, अमेरिका ने हंगरी और पोलैंड को खूब हथियार दिए ताकि वहाँ प्रजातंत्र को मजूबत किया जाए जिससे वहाँ साम्यवाद खुद ही कमजोर हो जाएगा, इसी तरह सोवियत संघ ने मध्य पूर्व, दक्षिण और दक्षिण पूर्व के देशो को खूब हथियार दिए ताकि इस इलाके से अमेरिका की पकड़ को कमजोर किया जा सके

फुट डालो और शाशन करो: हमसबको पता है की कैसे अंग्रेजो ने हिंदुस्तान में हिन्दू और मुसलमानो को आपस में लाडवा के लम्बे समय तक देश पे राज किया, इसी तरह शीत युद्ध काल में दोनों महा शक्तियों ने गुटनिरपेक्ष देशो सहित दुनिया के बहुत सारे देशो को एक दुसरे के खिलाफ करके ज्यादा से ज्यादा देशो को अपने गुट में जोड़ने की कोशिश की जिसमे इजराइल और फिलिस्तीन का मुद्दा सबसे एहम है जो आजतक चल रहा है

प्रभाव के दायरे घटे और बढे- साल 1907 में ईरान रूस और ब्रिटेन के प्रभाव में आया जिससे ईरान के उत्तर और दक्षिण छेत्र को रूस और ब्रिटेन के प्रभाव के अधीन मान लिया गया पर ईरान के मध्य इलाके में दोनों देशो को किसी भी तरह के आर्थिक और राजनीतिक दखल से दूर रहने का फैसला किया गया

इसी तरह से साल 1914 में जब जर्मनी के बेल्जियन की तठस्थ फैसले में दखल देता देखा गया तो फ्रांस और ब्रिटेन ने इसका खुलके विरोध किया और फ्रांस ने आगे बढ़के बेल्जियन के साथ एक रक्षा गठ जोड़ किया

संयुक्त राष्ट्र संघ दुनिया की ऐसी संस्था है जहाँ ताकतवर देश शक्ति का संतुलन बनाए रखने के लिए कई नियम बनाते और बिगाड़ते रहते है, वैसे संयक्त राष्ट्र संघ खुद ही शक्ति हासिल करने की राजनीती का केंद्र है, संयुक्त राष्ट्र संघ में समय समय पे शक्तिशाली देश अपने हितो के पक्ष के लिए कई तरह के गठ जोड़ बनाते और बिगाड़ते रहे जिससे दुनिया की शक्ति का समीकरण बदलता रहा है

जानकार मानते है की शक्ति संतुलन के जितने भी कदम क्यों न उठा लिए जाए कितने भी नियम और गठजोड़ क्यों न बना लिए जाए पर समय समय पे युद्ध होते रहेंगे और हर युद्ध के बाद नए नियम बनेगे और शक्ति संतुलन के किसी भी नियम को कभी भी स्थाई कहना मुश्किल होगा

संयुक्त सुरक्षा गठजोड़: विश्व राजनीति में शक्ति संतुलन के लिए उठाए जाने वाले सभी कदमो को बहुत एहमियत दी जाती है, संयुक्त राष्ट्र संघ भी ये मानता है की विश्व शान्ति और शक्ति का संतुलन होना बेहद जरुरी है, लगभग सभी देश संयुक्त स्तर पे इस बात पे सहमत रहते है की अगर कोई एक देश या कुछ देशो का समूह किसी भी वजह से सेना का इस्तेमाल करके अपने किसी भी मकसद को पूरा करने के लिए कोई बक़दम उठता है ख़ास कर जब किसी अन्य कमजोर देश के खिलाफ कुछ किया जाता है तो ऐसी स्थिति में सभी शांति प्रिय देशो को ये अधिकार है की वो कोई संगठन बना के हमलावर देश को रोके ऐसी स्थिति में अगर शांति प्रिय देश सेना का प्रयोग भी करते है तो इसे सही माना जाएगा

राजनीती: हमलावर देश के खिलाफ एक मजबूत सेना और तंत्र बनाने में कुछ रोड़े हर बार सामने आते है जिसमे से राजनीति प्रमुख है जब भी किसी हमलावर देश के खिलाफ कोई करवाई करनी होती है तो शांति प्रिय देश सबसे पहले ये देखते है की इस कदम से कही उनके राष्ट्रीय हित प्रभावित न हो जाए, ऐसी ही राजनीतिक परेशानियों ने तब घेरा था जब जापान ने चीन पे हमला बोल दिया, उधर इटली ने जब एबीसीनिया पे हमला किया और कुछ ऐसा ही तब भी हुआ था जब जर्मनी ने ऑस्ट्रिया के खिलाफ सेना उतारी थी इन सभी हालातो में ताकतवर देश अपने राष्ट्रीय हितो की वजह से हमलावर को रोकने में ढीला रवैया अपनाते रहे

मानसिकता: दुसरे विश्व युद्ध से पहले ब्रिटेन, अमेरिका और फ्रांस जैसे ताकतवर देशो ने जर्मनी और जापान की सैनिक हरकतों से आंखे मूंदे रखी क्यों की वो चाहते थे की जर्मनी, इटली और जापान साम्यवादी सोवियत संघ को कमजोर रखे, माना जाता है की इसी सोच ने दुसरे विश्व युद्ध को जन्म दिया

हिटलर और मुसोलिनी को युद्ध के लिए उस मानसिक तकलीफ ने ही उकसाया जो अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस ने उन्हें साल 1919 के पेरिस समझौते के वक्त दिया था

संयुक्त सुरक्षा गठजोड़ के तहत इस बात पे नजर हमेशा रखी जानी चाहिए की कोई भी एक देश इतना ताकतवर न होने पाए की वो दुसरे दशो के लिए खतरा बन जाए

शांति प्रिये देशो को चाहिए की हमलावर सोच रखने वाले देशो को संयुक्त संगठन का सदस्य बना के रखे ताकि हमलावर सोच वाले देश की हर हरकत पे करीब से नजर रखी जा सके साथ ही उसे इस बात का एहसास रहे की विश्व समुदाय के प्रति उसकी क्या क्या जिम्मेदारियां है, और इससे उसे विश्व बिरादरी द्वारा बनाए गए कानूनों का पालन करने का एहसास भी रहेगा

शांति प्रिये देशो को इस बात पे नजर रखनी होगी की कोई भी देश जरुरत से ज्यादा हथियार न बना सके, न खरीद सके और न ही संभाल के रख सके इससे युद्ध का खतरा टला रहेगा

संयुक्त गठजोड़ को कुछ प्रमुख कार्यो को याद रखना होगा, संयुक्त सुरक्षा गठजोड़ की वजह से ही साल 1999 में कोसोवो से युद्ध को खत्म किया जा सका, साल 2001 में अफगानिस्तान से आतंकवाद को खत्म करने की शुरुआत हो सकी, इसी तरह साल 2003 में इराक द्वारा बना के रखे गए खतरनाक हथियारों को खत्म किया जा सका

संयुक्त सुरक्षा गठजोड़ उस सोच का नतीजा है जिसके तहत युद्ध के समय युद्ध को खत्म करवाके हमलावर देश के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय स्तर पे करवाई की जा सके, पर अफ़सोस की दुनिया की महा शक्तियों ने इस अच्छी सोच को अपने राष्ट्रीय हितों के लिए इस्तेमाल करना शुरू कर दिया, इसी संधर्व में साल 1994 में एक जैसे हालात में अमेरिका ने रवांडा में कोई करवाई नहीं होने दी पर अफगानिस्तान में साल 2001 में अमेरिका ने ही करवाई कर दी

संयुक्त सुरक्षा गठबंधन की सबसे पहले परख साल 1950 में चल रहे कोरिया युद्ध में हुई थी, इस युद्ध में दुनिया के कुछ सबसे ताकतवर देश जिनमे अमेरिका , चीन, ब्रिटेन और फ्रांस शामिल थे ने संयुक्त राष्ट्र संघ में हमलावर देश उत्तर कोरिया के खिलाफ गठजोड़ करके युद्ध को रोकने का प्रस्ताव लाया जिसकी सुनवाई करते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ ने सोवियत संघ की गैर हाजिरी में ही उत्तर कोरिया के खिलाफ प्रस्ताव को पारित कर दिया, सोवियत संघ ही अकेला देश था जो उत्तर कोरिया के साथ खड़ा था पर उसके अनुपस्थित रहने की स्थिति में संयुक्त राष्ट्र संघ ने उत्तर कोरिया के खलाफ संयुक्त सेना को कार्रवाई का हुकम दे दिया

जिसके तुरंत बाद ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, फ्रांस, बेल्जियम, कनाडा, कोलोम्बिया, इथिओपिया, ग्रीस, लक्सेम्बोर्ग, नेदरलैंड, नूज़ीलैण्ड, फिलीपीन्स, थाईलैंड, तुर्की, यूनियन ऑफ़ साउथ अफ्रीका, ब्रिटेन जैसे देशो ने अपनी सेना की टुकडिया मुहैया करवा दी जिसमे कुल 53% का हिस्सा अमेरिका का था, इसी सेना के दखल के बाद उत्तर कोरिया को रोका जा सका और कोरिया युद्ध का अंत हुआ

दुसरे उधारण के तौर पे इराक और कुवैत के युद्ध को देखा जा सकता है, 2 अगस्त 1990 को इराक की सेना ने कुवैत को अपने कब्ज़े में ले लिया, जिसके बाद अमेरिका के नेतृत्व में एक प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र संघ में 29 नवंबर 1990 को पास किया गया जिसके तहत अमेरिका के नेतृत्व वाली सेना को हुकम दिया गया की जल्द से जल्द इराकी सेना को कुवैत से बाहर निकाल के कुवैत को आज़ाद करवाया जाए, इस प्रस्ताव को कुल 12 वोट मिले थे, क्यूबा और यमन ने इस प्रस्ताव का विरोध किया था और चीन  गैर हाजिर रहा था

इसके बाद अमेरिका के नेतृत्व में कुल 29 देशो की सेना ने दखल दिया और 42 दिन की लड़ाई के बाद 27 फरवरी 1991 को कुवैत को आज़ाद करवा लिया गया, इसके बाद संयुक्त सेना ने इराक के खिलाफ अपना अभियान तब रोक दिया जब इराक ने सिक्योरिटी कौंसिल की सभी बातें मानने की हाँ कह दी

इसी साल 4 अप्रैल को सिक्योरिटी कौंसिल ने इराक को ये हुकम सुनाया की वो अपने सभी केमिकल, बायोलॉजिकल और बैलेस्टिक हथियार नष्ट करे और कुवैत के साथ अपनी वर्तमान सीमा का सम्मान करे

हथियारों की कटौती- लीग के अस्तित्व में आने के बाद इसके आर्टिकल नंबर-8 के मुताबिक सभी सदस्य देशो को कहा गया की सभी देश अपने जमा हथियारों में इतनी कटौती करे की सिर्फ देश की रक्षा के लिए जरुरी हथियार ही रखे जाए, इसके बाद आर्टिकल 10 के अंतर्गत कमिटी भी बनाई गई जिसमे बहुत से विचार विमर्श भी किए गए पर अंत आज तक इस दिशा में कुछ ख़ास काम नहीं हो सका है

वैसे तो गुट निरपेक्ष देशो ने हमेशा शांति की बात की पर लगभग सभी बड़े गुटनिरपेक्ष नेतावों जिनमे भारत के पूर्व प्रधान मंत्री नेहरू भी शामिल है ने कहा की गुटनिरपेक्ष देश किसी भी हाल में किसी भी देश से युद्ध नहीं चाहते पर अगर युद्ध होता है तो वो निष्पक्ष नहीं रह सकते

प्रोपोगंडा: जब किसी चिन्ह, शब्दों, झंडे, तस्वीरों, स्मारकों और संगीत द्वारा एक बड़े समुदाय की सोच और व्यौहार को प्रभावित करते हुए अपनी सुविधा के हिसाब से ढालने की कोशिश की जाती है तो ऐसे पूरे काम को प्रोपोगंडा कहा जाता है, इस काम के लिए फिल्म, प्रेस, रेडियो, आमने सामने के संवाद धार्मिक और सांस्कृतिक समागमों का सहारा लिया जाता है, प्रोपोगंडा का तभी सही फ़ायदा मिलता है जब इसका निर्माण किसी पूरे ग्रुप को ध्यान में रख के किया गया हो वरना एक आदमी के लिए किसी भी प्रोपोगंडा को चलाने का कोई फ़ायदा नहीं होता, कोई भी प्रपोगंडा किसी एक ग्रुप पे असरदार तो हो सकता है पर जरुरी नहीं की किसी दुसरे ग्रुप पे भी वही असर करे जो पहले ग्रुप पे किया था, उधारण के लिए एक खास प्रोपोगंडा जो शहर की जनता को लुभाने के लिए बनाया गया हो वो शहर की जनता को प्रभावित करेगा पर वही प्रोपोगंडा गांव में रहने वाले लोगो को प्रभावित नहीं करेगा क्योकि गांव में रहने वाले लोगो की जरूरतें बिलकुल अलग रहती है

एक अच्छा प्रोपोगंडा बनाने वाले की ये खूबी होती है की वो टारगेट पे लिए गए लोगो के ग्रुप की भावना का इस्तेमाल कर सकता है, जैसा की ww2 के समय जर्मनी ने पोलैंड के लोगो के दिलो में जर्मन सेना का खौफ प्रपोगंडा के जरिए भर दिया और पोलैंड की जनता और सेना को इतना डरा दिया की उन्हें लगने लगा की जर्मन के जासूस पूरे पोलैंड के चप्पे चप्पे पे मौजूद है जिससे जब जर्मन की सेना ने पोलैंड पे हमला किया तो उसे किसी ख़ास विरोध का सामना नहीं करना पड़ा ऐसा जर्मन के प्रोपोगंडा जिसने पोलैंड के लोगो को दिमागी तौर पे कमजोर कर दिया था की वजह से हुआ, एक मजबूत  प्रोपोगंडा तैयार करने के लिए, एक माहिर टीम, पूरे साजो सामान और राजनितिक टीम के साथ एक ठोस ताल मेल के बिना नहीं बनाया जा सकता

प्रोपोगंडा को रोकने के लिए सरकारें प्रोपोगंडा के खिलाफ प्रोपोगंडा, आर्थिक दबाव, और यहाँ तक की सेंसरशिप तक का सहारा लेती है

प्रोपोगंडा और डिप्लोमेसी: साल 1946 में अमेरिका ने कुछ दस्तवेज मीडिया में सार्वजनिक किए जो ये साबित करते थे की उस समय के अर्जेंटीना के लेफ्ट सोच वाले हिटलर के इशारे पे काम कर रहे थे अमेरिका ने ये प्रोपोगेंडा इस लिए उछाला क्योकि वो चाहता था की उस समय की अजेंटीना के जुआन पेरोन को जो लेफ्ट के नेता माने जाते थे को सत्ता से उखाड़ दिया जाए, वो बात अलग है की अगले ही चुनाव में जुआन पेरोन जीत हासिल करने में सफल हुए और अमेरिका का प्रोपोगेंडा फेल हो गया ऐसा इस लिए हुआ क्यों की जुआन पेरोन को अर्जेंटीना के गरीब तपके का मजबूत समर्थन हासिल था

साल 1936 के चेकोस्लोवाकिया संकट के समय ब्रिटेन ने एक प्रोपोगेंडा चलाया की अगर चेकोस्लोवाकिया और फ्रांस युद्ध में हिटलर के खिलाफ उतरते है तो इन दोनों देशो को ब्रिटेन और सोवियत संघ का पूरा समर्थन मिलेगा ऐसा ब्रिटेन ने हिटलर को मानिसक तौर पे डराने और कमजोर करने के लिए किया था क्योकि उस समय हिटलर सदेतेनलैंड पे कब्ज़ा करना चाहता था

Ww2 के समय हिटलर अपनी बाज़ू पे स्वस्तिक का चिन्ह लगाया करता था जिससे अपनी बाज़ू पे लगाने के लिए हर सैनिक को इसके काबिल बनने के लिए प्रेरित किय जाता था, हिटलर और मुसोलिनी अपने सैनिको को युद्ध में अच्छा प्रदर्शन करने वाले सैनिको को ख़ास किसम की शानदार वर्दी दिया करते थे और बाकी सैनिको को भी ऐसी वर्दी जीतने के लिए प्रेरित किया जाता था ये कुछ ऐसे प्रोपोगंडा का हिंसा थे जिसमे सफल होने के लिए हिटलर और मुसोलिनी के सैनिक जी जान लगा दिया करते थे

साल 1939 के सितम्बर माह में हिटलर ने एक अफवाह उड़वाई की पोलैंड ने ग्लिवीस के रेडियो स्टेशन पे हमला किया है आगे चलके ये झूठ सच बन गया और ww2 की शुरुआत हुई

शीत युद्ध के समय में सोवियत संघ ने गुट निरपेक्ष सोच को खूब सराहा और हथियारों की कटौती दुनिया के लिए अकेला रक्षक बताना शुरू किया, सोवियत ने सिर्फ अपनी छवि गरीब देशो की नजर में सुधारने और अमेरिका और उसके सहयोगियों को विश्व शांति के लिए खतरा साबित करने के लिए ये एक प्रोपोगंडा चलाया था, जब ब्रिटेन और फ्रांस जैसे देशो ने एशिया और अफ्रीका के गरीब देशो पे कब्ज़ा कर रखा था तब सोवियत ने इन देशो के नौजवानो के मन में देश भक्ति भरी ताकि ब्रिटेन और फ्रांस के  अधीन आए देशो को आज़ाद करवा के ब्रिटेन और फ्रांस की ताकत को काम किया जा सके, जैसे जैसे ये गरीब देश आज़ाद होते गए वैसे वैसे सोवियत प्रोपोगंडा मशीनरी ने इन देशो की सरकारों के मन में ये बात डालनी शुरू की, की इन देशो की सभी समस्यावो का हल सोवियत के ढंग से करने से ही हो सकता है, जिससे सोवियत ने इन देशो की सोच को अपने गुट में अमेरिका गुट के खिलाफ जोड़ना शुरू कर दिया था

जब ww2 खत्म हुआ तो जर्मनी के दो हिस्से कर दिए गए जिसके बाद पूर्वी जर्मनी से रेडियो पे ऐसे प्रोग्राम चलाए जाते थे जो पूरी तरह से पश्चिमी देशो ख़ास कर अमेरिका के खिलाफ हुआ करते थे, इनका मकसद पश्चिम जर्मनी, ईरान और टर्की के लोगो के मन में सोवियत विचार धारा को घुसाना होता था

इसी तरह अमेरिका कई सारे लोकतान्त्रिक देशो में सेमिनार करवाया करता था, लाइब्रेरीज़ खोली गई, ग्रुप डिस्कशन करवाए गए, कई सारी फिल्म बनाई गई जो ये दिखाती थी की लोकतंत्र के कितने फायदे है और जहाँ जहाँ भी लोकतंत्र है उन देशो ने कितनी तरक्की की है

अमेरिका ने अलग अलग देशो में कल्चरल प्रोग्राम करवाए और कई देशो के पत्रकारों, नेतावो, कलाकारों को अमेरिका बुलाया उन्हें ये दिखने की कोशिश की लोकतंत्र कितनी सही सोच है और इसके क्या फायदे है, ऐसे लोगो की मदद से ही अमेरिका ने अलग अलग देशो में लोकतंत्र को मजबूत किया और साथ ही साथ साम्यवाद की जड़ो को कमजोर किया

विदेश नीति और अंतर्राष्ट्रीय राजनीती: उधारण के लिए अमेरिका जो पहले महा युद्ध तक यूरोप के किसी मामले में हिस्सा नहीं लेता था पर साल 1920 के बाद अमेरिका ने यूरोप की गतिविधियों में हिस्सा लेना शुरू कर दिया, किसी भी देश की विदेश नीति का अंतर्राष्ट्रीय राजनीती पे सीधा असर पड़ता है कुछ और उधारण, दुसरे महा युद्ध के बाद अमेरिका ने अपनी विदेश नीति में बदलाव करते हुए खुदको सीधा सोवियत नीतियों के विरोध में खड़ा कर दिया, शीत युद्ध का अंत साल 1991 में तब हुआ जब सोवियत संघ का अंत हो गया, इसी तरह अमेरिका ने चीन से अपने  रिश्ते मधुर करते हुए साल 1970 में अपनी विदेश नीति में बदलाव करते हुए चीन से दोस्ती कर ली और उसे संयुक्त राष्ट्र संघ में स्थाई सदस्य्ता दिलवा दी जबकि चीन उस समय भी सोवियत खेमे का प्रमुख सदस्य हुआ करता था, इसी तरह साल 1958 में चीन ने अपने ही बड़े भाई सोवियत संघ का खुलके विरोध करना शुरू कर दिया जिससे पूरी अंतर्राष्ट्रीय राजनीती के सभी समीकरण ही बदल गए

विदेश नीति किसी भी देश के हितों का ही एक रूप होती है जो अपने हितों को साधने के लिए दुसरे देश से डील करने का तरीका मात्र है, उधारण के लिए भारत की गुट निरपेक्ष नीति की वजह से ही समय समय पे भारत अमेरिका और सोवियत दोनों से फैयदे लेता रहा है, अगर विदेश नीति को हर देश अपने हितों को ध्यान में न रखते हुए बनाता होता तो अमेरिका सोवियत द्वारा हंगरी और चेकोस्लोवाकिया में दखल का विरोध नहीं करता वही अमेरिका जब खुद वियतनाम और चिली में दखल देता है तो अपने कदम को सही और अपने राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखते हुए ही बताता था

साल 1971 के बाद अमेरिका ने सोवियत संघ से अपने रिश्तों का बैलेंस बनाए रखने के लिए चीन कार्ड का कई बार इस्तेमाल किया, पर जब अमेरिका ने चीन से दोस्ती साधनी शुरू की तो उसने ताइवान और जापान के लिए अपनी विदेश नीति में कोई बदलाव नहीं किया और उसने चीन से दोस्ती करके अपने व्यापारिक हितों को साधने के समय जापान और ताइवान के हितों की परवाह नहीं की


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