शीत युद्ध के बाद कैसे बदली विश्व राजनीति, कब अमेरिका ने कौनसी ताकत हासिल तो कब सोवियत ने कौन सी उपलब्धि प्राप्त की, सब पढ़िए कहानी के तीसरे और आखिरी भाग में...

डिप्लोमेसी: डिप्लोमेसी का सही अर्थ दुसरे देशो के साथ रिश्तों का एक बैलेंस बना के रखना होता है पर डिप्लोमैट को ये ध्यान रखना होता है की किसी भी हाल में राष्ट्र हितों को कोई नुक्सान नहीं होने पाए, डिप्लोमेसी का एक मकसद ये भी होता है की किसी दुसरे देश के साथ जितना हो सके शांतमई रिश्ते बना के रखे जाएँ, पर जब युद्ध ही आखरी विकल्प बचे तो सेना को हर संभव मदद देना डिप्लोमेसी का दूसरा कार्य होता है, डिप्लोमेसी का एग्रीमेंट के हाल में कोई स्थान नहीं होता पर डिसएग्रीमेन्ट और गलत फेहमी के हाल में चाहे ऐसे हालत सही हो या गलत दोनों में डिप्लोमेसी का बड़ा योगदान रहता है, दुसरे देशो के साथ किसी भी तरह के युद्ध के हालात न बने इस बात का ध्यान रखना डिप्लोमेसी का बड़ा जरुरी अंग होता है

विदेशनीति चाहे देश के नेता लोग बनाएँ पर इसे बनाते समय अनुभवी डिप्लोमैट्स की सलाह को लिया जाना बेहद जरुरी होता है, तानाशाही के नीचे जी रहे देश की विदेश नीति सिर्फ देश का सबसे बड़ा नेता ही बनाता है इसके इलावा साम्यवादी देशो में भी विदेश नीति देश का सबसे बड़ा नेता ही बनाता है ऐसी नीतियों में दुसरे देश के हितों पर कोई ज्यादा जोर नहीं दिया जाता

म्युनिक पैक्ट 1938 और सोवियत जर्मन नॉन अग्रेशन पैक्ट 1939 भी कुछ ऐसे ही पैक्ट थे जो कभी सदन में नहीं पहुंचे जिससे इनपे कभी कोई बहस तक नहीं हुई और इन पैक्ट की मीडिया कवरेज की रोक भी थी जिस वजह से ये पैक्ट फेल हुए और दूसरा महा युद्ध हुआ

क्वाइट डिप्लोमेसी: इस डिप्लोमेसी के तहत संयुक्त राष्ट्र संघ के पास ये शक्ति है की वो किसी अंतर्राष्ट्रीय समस्या को हल करने के लिए जरुरी सदस्य देशो को अर्जेंट नोटिस भेजके मीटिंग बुलाए और और सबके ध्यान में लाके मामले में जल्द से जल्द दखल दे, जरुरी हो तो संयुक्त सेना भेजके मामले का हल करे और कोई बड़ा युद्ध होने से रोके, ऐसे समय में संयुक्त राष्ट्र के पास ताकत है की वो मामले में किसी भी महा शक्ति को दखल देने से पहले रोक दे

थ्रेट और काउंटर थ्रेट डिप्लोमेसी: साल 1956 में जब ब्रिटेन, फ्रांस और इजराइल ने सुएज पे हमाल किया तो सोवियत के राष्ट्रपति ने इन देशो को एक खत लिखा जिसमे कहा की युद्ध को जल्द से जल्द रोक दिया जाए नहीं तो सोवियत सेना इजीप्ट की मदद के लिए पहुंच जाएगी जिसके बाद ये युद्ध रुक गया था, इसी तरह काउंटर थ्रेट डिप्लोमेसी के तहत जब साल 1971 में भारत पाकिस्तान के युद्ध में अमेरिका ने पाकिस्तान की मदद के लिए अपने सातवे फ्लीट को भेजने की बात की तो सोवियत ने भारत की मदद के लिए अपनी जल सेना को भेजने की खुली धामी दे दी थी जिसके बाद अमेरिका को पीछे हटना पड़ा था

दुसरे विश्व युद्ध के बाद और शीत युद्ध का दौर: सही मायने में अगर जर्मनी का हिटलर दूसरा विश्व युद्ध शुरू नहीं करता तो दूसरा विश्व युद्ध पश्चिमी देशो और पूर्वी देशो के बीच होता ख़ास कर पश्चिमी देशो द्वारा सोवियत संघ के खिलाफ लड़ा जाता क्योंकि दुसरे विश्व युद्ध से पहले ही पश्चिमी गुट के सोवियत गुट से तना तनी पूर्व और पश्चिम की विचारधारा में भारी अंतर् की वजह से शुरू हो चुकी थी जो दुसरे विश्व युद्ध के बाद शीत युद्ध में बदल गई थी, साल 1945 में अमेरिका ने जापान के दो शहरों पे परमाणु बम गिराके जापान को हराने से ज्यादा सोवियत संघ को डराने का इरादा रखा था, जब दुसरे विश्व युद्ध के दौरान अमेरिका और ब्रिटेन ने गुप्त तौर पे जर्मनी के कुछ अफसरों से एक संधि करने की कोशिश की जिसके तहत ये दोनों देश चाहते थे की जर्मनी के ये अफसर इटली में जर्मन सेना के सरेंडर में अमेरिका और ब्रिटेन की मदद करे, जब ये बात सोवियत नेता स्टालिन को पता चली तो उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति रूज़वेल्ट को एक खत के जरिए इस बात पे नाराजगी जताई की रूज़वेल्ट और चर्चिल दोनों सोवियत को बिना विश्वास में लिए सोवियत के बिना ही जर्मनी को अपने प्रभावों में लेना चाहते है

शीत युद्ध के दौर में अमेरिका में सोवियत के खिलाफ माहौल: अमेरिका में सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट ने कहा की सोवियत की विदेश नीति हमलावर और प्रसारवादी है तो अमेरिका के राष्ट्रपति को कोई आप्पति नहीं हुई पर जब कॉमर्स सक्रेटरी वाल्स ने कहा की अमेरिका और सोवियत के रिश्ते ठीक हो रहे है तो अमेरिकी राष्ट्रपति ने उन्हें उनके पद से हटा दिया, उस दौर में अमेरिकी सरकार के प्रेस नोट में ये बात साफ़ लिखी जाती थी की सोवियत दुनिया में एक मात्र हमलावर शक्ति है

सोवियत और अमेरिका दोनों महा शक्तियां ज्यादा से ज्यादा देशो को अपने प्रभाव में लेके अपने गुट को ज्यादा से ज्यादा ताकतवर बनाने की कोशिस करती रहती थी, दोनों देश ज्यादा से ज्यादा देशो को अपने प्रभाव में लेके विश्व के ज्यादा से ज्यादा देशो के कुदरती संसाधनों का अपने हितों के लिए इस्तेमाल करना चाहते थे, दोनों देशो ने गरीब देशो की कम कीमत मांगने वाली लेबर को अपने देश के कारखानों में इस्तेमाल करके अपने विरोधी को मात देने का कोई मौका नहीं छोड़ा

दुसरे विश्व युद्ध के बाद ज्यादातर गरीब देश ब्रिटेन और फ्रांस की अधीनता से आज़ाद हो चुके थे अब इन देशो को सोवियत और अमेरिका ने एक नए ढंग से मानसिक तौर पे गुलाम बनाने का प्लान बनाया जिसके तहत ये दोनों देश गरीब और कमजोर देशो को परमाणु युद्ध का डर दिखा के अपने अपने खेमे में जोड़ने और अपनी जरूरतों के लिए इन देशो को अपने ऊपर( अमेरिका और सोवियत संघ) पर निर्भर बनाना शुरू कर दिया जिससे दुनिया दो गुटों में बंट गई

देटेंट(शांति का दौर): ये वही दौर था जब जिनेवा एग्रीमेंट का सम्मान करते हुए सोवियत संघ ने अफगानिस्तान से अपनी सेना पूरी तरह से वापिस बुला ली थी, इसी दौर में सोवियत संघ ने अमेरिका से गेहू निर्यात करना शुरू किया, इसके साथ ही सोवियत ने ब्रिटेन, फ्रांस और पश्चिमी जर्मनी से भी आर्थिक एग्रीमेंट्स किए, इसके बदले में पश्चिमी देशो ने सोवियत से तेल खरीदना शुरू किया, इसी दौर में सोवियत और अमेरिका ने साल्ट-1 पे हस्ताक्षर किए जो इस दौर का सबसे बड़ा कदम माना जाता है, साल्ट-2 भी इस दौर में अस्तित्व में आया था

साल 1968 में एनपीटी पे हस्ताक्षर हुए जिसके मुताबिक़ अमेरिका, सोवियत संघ, ब्रिटेन, फ्रांस और चीन किसी भी अन्य देश को परमाणु तकनीक नहीं देंगे इस बात पे रजामंदी हुई, साथ ही इस बात की छूट दी गई की अगर इनमेसे कोई भी देश किसी अन्य देश को परमाणु तकनीक या परमाणु ऊर्जा देगा तो इस शर्त पे देगा की उक्त देश परमाणु ऊर्जा का इस्तेमाल परमाणु बम बनाने के लिए नहीं करेगा साथ ही समय समय पे उक्त देश इंटरनेशनल एटॉमिक एनर्जी एजेंसी को अपने देश में परमाणु कार्यक्रम की निष्पक्ष जांच करने की अनुमति जरूर देगा

साल 1990 में सोवियत नेता गोर्बाचेव और बुश में एक राय बनी जिसके तहत कुवैत को आज़ाद करवाने के लिए कदम उठाए गए, साल 1948 में जर्मनी को दो भागो में बाटा गया, साल 1961 में जर्मनी को बाँटने वाली दिवार का निर्माण हुआ जो शीत युद्ध का एक धब्बा था, पर साल 1990 में जर्मनी की दिवार को गिरा के जर्मनी का एकीकरण किया गया जो देटेंट के दौर का सबसे बड़ा तौफा था

गुट निरपेक्षता का युग: भारत ने न खुलके सोवियत संघ का ग्रुप ज्वाइन किया न ही खुलके अमेरिका का, बल्कि उसने एक गुट निरपेक्ष राजनीती की शुरुआत की जिसका भारत को तब भरपूर फ़ायदा मिला जब उसे चीन के साथ साल 1962 के युद्ध में नुक्सान उठाना पड़ा था, इस युद्ध के बाद अमेरिका और सोवियत संघ दोनों ने भारत की खुलके मदद की, पर साल 1966 में जब भारतीय सेना ने पाकिस्तान के साथ युद्ध में एक बड़ा हिस्सा अपने कब्ज़े में लिया तो ताशकंत के समझौते में सोवियत प्रधान मंत्री कोसिगिन ने भारत पे दबाव बना के पाकिस्तान को उसकी जमीन वापिस दिलवाई, ऐसा सोवियत ने अपने हितों को देखते हुए किया था, इस बात से भारत काफी नाराज भी हुआ था

सोवियत नेता गोर्बाचेव ने एक बार कहा था की गुट निरपेक्ष मूवमेंट की कोई एक स्थाई कमेटी तक नहीं है, न ही कोई ज्वाइनिंग फीस है, न कोई ढंग का बजट है, न किसी खर्चे और आमदनी का कोई पक्का हिसाब है, जब सम्मलेन होता है तो जिस देश में सम्मलेन होता है उसे ही सारा खर्च उठाना पड़ जाता है जो कोई पेशेवर ढंग को नहीं दिखाता, गुट निरपेक्ष मूवमेंट ने इंटरनेशनल कानून के माहिरों को कभी आकर्षित नहीं किया

हथियारों की कटौती का दौर: एक दौर ऐसा आया जिसमे दो नीतियों का गठन हुआ, पहला हथियारों में कटौती जिसके तहत ताकतवर देशो को ये ध्यान रखना था की उनके पास बस उतने ही हथियार हो जिससे उनके देश की सुरक्षा की जा सके इसके इलावा जरुरत से ज्यादा हथियारों को ये देश खुद नष्ट करेंगे या फिर इन ज्यादा हथियारों को समुद्र में फेंक देंगे इस नीति के सफल होने की संभावना हमेशा से कम रही है क्यों की कोई भी देश अपने हथियारों को खुद नष्ट करेगा ये बात विश्वास के लायक नहीं है, दूसरी नीति थी की हथियारों के भंडार को काबू में रखने की जिसके तहत ताकतवर देशो में ये सहमति बनी की वो अपने हथियारों के जखीरे पे काबू रखेंगे और आने वाले समय में उतने ही हथियार बनाए जाएंगे जितने की सख्त जरुरत होगी साथ ही ये देश इस बात का ध्यान सख्ती से रखेंगे की उनके किसी भी कदम से हथियारों की दौड़ को तेजी न मिले, साथ ही ये देश इस बात का ध्यान रखेंगे की इन हथियारों का इस्तेमाल सिर्फ डिफेन्स के लिए हो न की किसी देश या आम जनता पे हमला करने के लिए

दुसरे विश्व युद्ध से पहले हथियारों में कटौती की कोशिशें: दुसरे विश्व युद्ध से पहले भी कई कदम उठाए गए थे जिसके तहत हथियारों में कटौती की जा सके पर हिटलर के सत्ता में आने और जापान के वाशिंगटन समझौते को तोड़ने की वजह से हथियारों की कटौती के सभी प्रयास विफल रहे और जिसका नतीजा दूसरा विश्व युद्ध हुआ, साल 1817 में ब्रिटेन और अमेरिका ने एक समझौते पे हस्ताक्षर किए जिससे अमेरिका और कनाडा जैसे देशो ने अपने नवल शक्ति को काबू में रखने पे सहमति जता दी थी, ऐसी नीतियों की वजह से ही पहले विश्व युद्ध में हारने वाले देशो के साथ कुछ समझौते किए गए जिसके तहत जर्मनी की सैनिक शक्ति में भारी कटौती की गई, रेहिनलैंड को अगले 15 साल तक सेना रखने पे रोक लगा दी गई, नवल फार्स पे पाबन्दी लगा दी गई, भारी आर्टलेरी रखने पे भी पाबन्दी थी, हथियार बनाने के कारखानों को बंद कर दिया गया साथ ही एक कमिटी का गठन किया गया जिसकी जिम्मेदारी थी की वो इन हमलावर देशो के द्वारा हथियार बनाने के काम की समय समय पे जाँच करें

साल 1925 में प्रेपेटरी कमीशन बनाया गया जिसने टेम्पोरेरी कमीशन का स्थान लिया जिसकी जिम्मेदारी हथियारों की दौड़ पे रोक लगाना थी, शुरू में ब्रिटेन, फ्रांस, इटली और जापान सदस्य थे पर बाद में कुछ और सदस्यों को भी स्थान दिया गया, जिसमे जर्मनी, अर्जेंटीना और चिली साल 1926, ग्रीस साल 1927 और तुर्की साल 1928 है

15 नवंबर 1945 को अमेरिका के राष्ट्रपति, ब्रिटेन के प्रधानमंत्री, और कनाडा के प्रधानमत्री ने एक कमीशन बनाने का सुझाव दिया जिसका काम अंतर्राष्ट्रीय स्तर पे परमाणु हथियारों पे नजर रखना होगा, सोवियत संघ ने भी इस प्रपोसल पे सहमति दी थी, इसके बाद ही दो कमीशन बने थे पहला एटॉमिक एनर्जी कमीशन था जो साल 1946 में बना और दूसरा कन्वेंशनल आर्म्स कमीशन था जो अगले साल बना, दोनों कमीशन की रिपोर्टिंग संयुक्त राष्ट्र के सिक्योरिटी कौंसिल को थी

साल 1953 में अमेरिका के राष्ट्रपति ने सुझाव दिया की एटॉमिक एनर्जी एजेंसी इस बात को सुनिश्चित करे की हर देश परमाणु ऊर्जा का इस्तेमाल सिर्फ शांतिमय कार्यो के लिए ही करेगा जिसपे सोवियत संघ ने अप्पति जाहिर करते हुए कहा की इससे पहले सभी सुनिश्चित करे की कोई भी देश परमाणु हथियारों का इस्तेमाल नहीं करेगा, फिर साल 1955 में अमेरिका के राष्ट्रपति ने एक खुला प्रपोजल रखा की दोनों महा शक्तिया संयुक्त राष्ट्र संघ की निगरानी में अपने हथियारों के जखीरे और सैनिक शक्ति की जांच की अनुमति दे जो किसी भी समय बिना किसी को बताए की जा सके जिसपे सोवियत संघ ने सहमति नहीं दी

क्यूबा के मिसाइल संकट के बाद अमेरिका और सोवियत संघ दोनों महा शक्तियों ने एक हॉट लाइन दोनों देशो के बीच स्थापित की जिसका इस्तेमाल समय समय पे किया जाना जरुरी था ताकि दोनों देशो को एक दुसरे के विचारो का पता चलता रहे और कभी एक दुसरे के आमने सामने न आया जाए, साल 1963 में पार्शियल या लिमिटेड टेस्ट बैन ट्रीटी का जन्म इसी हॉट लाइन की वजह से संभव हो सका, इस ट्रीटी के तहत आगे चलके 131 देशो ने अपने हस्ताक्षर करके सहमति दी, इसी ट्रीटी के तहत हवा, जमीन की सतह और समुन्द्र में एक ख़ास लेवल पे परमाणु हथियारों के टेस्ट पे रोक लगा दी गई, अब जमीन के नीचे ही एक लेवल पे जाके परमाणु हथियारों का टेस्ट किया जा सकता था जिससे आस पास के देशो और आम लोगो की सेहत पर कोई नुक्सान न हो सके साथ ही इस बात पे जोर दिया गया की जिन देशो ने इस ट्रीटी पे हस्ताक्षर नहीं किए थे उनको भी हस्ताक्षर करने के लिए प्रेरित किया जा सके

एनपीटी के तहत अमेरिका, रूस, चीन, ब्रिटेन, फ्रांस को ताकत दी गई की वो विश्व के और देशो को परमाणु हथियार बनाने से रोकने के लिए कदम उठा सके, भारत, पाकिस्तान और इजराइल ने इस ट्रीटी पे हस्ताक्षर नहीं किए जिसके बाद चीन ने खुले तौर पे पाकिस्तान को परमाणु हथियार बनाने की तकनीक और साजो सामान दिया, दूसरी तरफ रूस ने ईरान को परमाणु एनर्जी बेचीं, इस ट्रीटी के अनुचित ढंग से शांतमई मंशा से चलाए जा रहे परमाणु कार्यक्रमों पे भी बुरा असर पड़ा जिसके बाद ही भारत ने इस ट्रीटी की परवाह न करते हुए साल 1974 में पोखरण में पहली बार परमाणु बम का सफल टेस्ट किया

आर्म्स कण्ट्रोल और कटौती के एग्रीमेंट्स: 1. साल 1963 में लिमिटेड/पार्शियल टेस्ट बैन ट्रीटी का जन्म हुआ, जिसका मकसद था की जमीन की सतह और समुन्द्र में परमाणु हथियारों के टेस्ट पे रोक लगाई जा सके, इसपे से 100 ज्यादा देशों ने हस्ताक्षर किए

2. साल 1970 में एनपीटी अस्तित्व में आई जिसका मकसद परमाणु हथियारों के फैलाव को रोकना था, इसपे से 80 ज्यादा देशों ने हस्ताक्षर किए

3. साल 1970 में बायो वेपन्स कन्वेंशन अस्तित्व में आई जिसका मकसद जैविक हथियारों को बनाने पे रोक लगाना थी इसपे से 80 ज्यादा देशों ने हस्ताक्षर किए

4. साल 1972 में SALT-1 सामने आई, जिसका काम था स्ट्रेटेजिक हथियारों को सीमित करना, इसपे समय की दोनों महा शक्तियों सोवियत संघ और अमेरिका ने हस्ताक्षर किए

5. साल 1972 में ही ABM ट्रीटी सामने आई, जिसका काम था एंटी बैलेस्टिक मिसाइल्स को सिमित करना, इसपे समय की दोनों महा शक्तियों सोवियत संघ और अमेरिका ने हस्ताक्षर किए

6. साल 1979 में SALT-2 सामने आई, जिसका काम था स्ट्रेटेजिक हथियारों को सीमित करना, इसपे भी समय की दोनों महा शक्तियों सोवियत संघ और अमेरिका ने हस्ताक्षर किए

7. साल 1987 में INF ट्रीटी सामने आई, जिसका काम था 2 केटेगरी जमीन मिसाइल्स को सिमित करना, इसपे भी समय की दोनों महा शक्तियों सोवियत संघ और अमेरिका ने हस्ताक्षर किए

साल 1996 में CTBT अस्तित्व में आई जिसके क्लॉज़ कहते है की विश्व के किसी भी हिस्से में परमाणु परिक्षण नहीं किया जा सकेगा, जो भी देश इसका उलंघन करेगा उस पे आर्थिक दंड लगाया जाएगा और इस ट्रीटी पे 3 साल के अंदर हस्ताक्षर करना हर देश के लिए जरुरी होगा पर कई देश इस ट्रीटी को लेके आज तक भी सहमत नहीं हुए है

परमाणु हथियारों की दौड़:1. परमाणु बम का अमेरिका द्वारा पहला टेस्ट साल 1945 में किया गया और सोवियत संघ द्वारा साल 1949 में

2.  इंटरकांटिनेंटल बॉम्बर की बात की जाए तो अमेरिका ने इस का निर्माण साल 1948 में कर लिया तो वही सोवियत ने ये लक्ष्य साल 1955 में हासिल किया

3. अमेरिका ने जेट बॉम्बर साल 1951 में बनाया तो वही सोवियत ने ये लक्ष्य साल 1954 में हासिल किया

4.  हाइड्रोजन बम अमेरिका ने साल 1952 में बनाया वही यह ताकत सोवियत ने साल 1953 में हासिल की

5. अमेरिका ने IBM साल 1960 में बनाया तो सोवियत ने साल 1964 में ये हथियार भी बना लिया

6.  अमेरिका ने SLBM साल 1960 में बनाया तो सोवियत ने साल 1964 में ये हथियार भी बना लिया

7.  सोवियत ने ABM साल 1966 में बनाया तो अमेरिका ने साल 1974 में ये हथियार भी बना लिया

8.  अमेरिका ने MITRV साल 1970 में बनाया तो सोवियत ने साल 1975 में यह उपलब्धि भी हासिल कर ही ली

 

sources: कहानी के तीनो भागों में जरूरी सारी सूचना का प्रमुख प्रेरणा श्रोत्र पुस्तक J.C. Johari द्वारा लिखी ” International Relations and politics theoretical perspectives in post-cold war era ” है, इसके इलावा बीबीसी हिंदी की कुछ कहानियों को भी सूचना आधार माना गया है

कहानी के किसी भी भाग में कोई भी कंटेंट कही से कॉपी करके इस्तेमाल नहीं किया गया है, कहानी के तीनो भागो में जो भी तस्वीरें इस्तेमाल की गई है इंटरनेट से ली गई है पर किसी भी तस्वीर का कमर्शियल इस्तेमाल नहीं किया गया है


 

 

 

 

 

 

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