हिमांचल का एक अनोखा रिवाज़ जो बना देता है दिवाली को कुछ खास, इस ख़ास रिवाज़ पे रौशनी डालती एक छोटी सी कहानी पढ़िए, लिंक को क्लिक करिए..

हिमाचल प्रदेश(जगत सिंह तोमर): जिला सिरमौर के गिरिपार क्षेत्र में दीपावली के ठीक एक माह बाद बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है जो विभिन्न गांवों में तीन पांच व सात दिनों तक चलती रहती है
जनपद सिरमौर का गिरी पार क्षेत्र सदियों पुरानी लोक संस्कृति व परंपराओं को संजोए रखें हुए हैं। पुरुषोत्तम भगवान रामचन्द्र के अयोध्या लौटने की खुशी में जहां पूरे देश मे दीपोत्सव पर्व मनाया जाता है वही महाभारत काल के बाद हिमाचल के जिला सिरमौर,जिला कुल्लू, सहित उत्तराखण्ड के बाबर जौनसार में बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है  दिवाली पर्व 4 दिसम्बर 2021 को 19 गते मार्गशीष अमावस्या की रात से मशाल यात्रा से आरम्भ हो जाएगी अमावस्या, पड़वा, दूज व तीज चौथ व पंचमी सप्ताह भर चलता है। इस दिन सभी घरों में पारम्परिक पहाड़ी व्यंजन अथवा पकवान बनाए जाते है देर रात्रि गावँ के लोग साँझा आँगन में एकत्रित होकर मशाल यात्रा गाँव से कुछ दूरी पर ले जाते है और निर्धारित स्थल पर बलिराज का पुतला जलाया जाता है और देर रात तक वीरगाथाएँ हारुल व लोकगीत चलते रहते है इसी रात्री इलाके के विभिन्न गांवों में बुड़ेछू (बूढ़ा)लोक नृत्य भी होता है जो अब चन्द गावों में देखने को मिलता है अमावस्या के बाद अलग-अलग दिन अस्कली, धोरोटी, पटांडे, सीड़ो व तेलपकी,उलौले  आदि पारम्परिक व्यंजन परोसे जाते है व मुड़ा-शाकुली,अखरोट गिरी का चबैना भी परोसा जाता है। बूढ़ी दिवाली के दूसरे दिन गावों की महिलाओं और युवतियों द्वारा साँझा आँगन में  विरह गीत भियुरी गाई जाती है इस गीत में कोई वाद्य यंत्र नही बजता है गावँ के सभी परिवार भियुरी गा रही महिलाओं व युवतियों को मूड़ा,शाकुली,अखरोट मिश्रित चबैना बांटते है उसके अगले दिन से तीज व चौथ पर प्रत्येक घरो में मेहमानों का आना जाना शुरू हो जाता है कईं गांव में सांस्कृतिक संध्याओं का आयोजन किया जाता है जिसमें से कुछ जगहों पर रामायण व महाभारत का मंचन किया जाता है। गिरीपार के अंतर्गत आने वाले उपमंडल संगड़ाह, शिलाई व राजगढ़ की लगभग 135 पंचायतों में दिवाली को आज भी पारम्परिक अंदाज में मनाया जाता है। क्षेत्र में कुछ दशक पहले तक बिना पटाखे चलाए प्रर्यावरण मित्र ढंग से यह उत्सव मनाया जाता था, हालांकि अब देश के अन्य हिस्सों की देखा-देखी में आतिशबाजी दीपावली का हिस्सा बन गई है। विशेष समुदाय से संबंध रखने वाले पारंपरिक बुड़ेछू कलाकारों द्वारा इस दौरान होकू, सिंघा वजीर, नतीराम व जगदेव आदि वीर गाथाओं का गायन किया जाता है।सदियों से क्षेत्र में केवल दीपावली तथा बूढ़ी दिवाली के दौरान ही बुड़ेछू नृत्य होता है तथा इसे बूढ़ा अथवा बुड़ियातू नृत्य भी कहा जाता है। बहरहाल क्षेत्र में सदियों से इस तरह बूढ़ी दीपावली मनाने की परंपरा कायम है। गिरिपार में दीपावली के अलावा लोहड़ी, गूगा नवमी, ऋषि पंचमी व वैशाखी आदि त्यौहार भी शेष हिंदोस्तान से अलग अंदाज में मनाए जाते हैं।

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